गजानन माधव मुक्तिबोध हिंदी के अकेले कवि, कहानीकार और आलोचक हैं, जो रचनाओं में अपनी संपूर्ण बेचैनी के साथ उपस्थित होते हैं। सामान्यतया रचनाकार और आलोचक की बेचैनी उसकी कृति में आती तो है लेकिन प्रकारांतर से। पर मुक्तिबोध ऐसा नहीं करते। वे जिस मध्यवर्ग से संबंध रखते हैं वह उच्चवर्ग के तलुए सहलाता है और निम्नवर्ग को लतियाता है। उनकी चिंता सहलाने और लतियाने के दोनों ही रूपों के विरुद्ध है। वे मनुष्य को मनुष्य के रूप में ही देखना चाहते हैं और चाहते हैं कि उसकी जो बेचैनियाँ इस व्यवस्था ने दी हैं, उन्हें रेखांकित किया जाए। इसलिए वे हर रचना में स्वयं उपस्थित होते हैं - प्रश्न करते हुए। वे पाठकों को उत्तर नहीं देते बल्कि उन प्रश्नों को उनके सामने रखते हैं जो प्रश्न स्वयं उन्हें परेशान करते रहते हैं। मध्यवर्गीय पात्र जिस प्रकार जीवन में समझौते कर सबको साधने का प्रयास करते हैं, मुक्तिबोध इस प्रकार के प्रयासों के विरुद्ध हैं। ये प्रयास मनुष्य को छोटा बनाते हैं और अततः उसको व्यक्तित्वहीन बनाकर विदूषक जैसी स्थिति में ला छोड़ते हैं। उनके यहाँ व्यवस्था के साथ अपने आसपास के परिवेश की भी उतनी ही चिंता विद्यमान है, वे देखते हैं किस प्रकार लोग बड़ा और सभ्य बनने के लिए अपने आसपास को घृणा की दृष्टि से देखने लगते हैं। यह घृणा का व्यापार उन्हीं लोगों के लिए होता है, जिनके बीच से वे निकलकर आए हैं। मुक्तिबोध सामान्य वर्ग के लोगों के पास बार-बार जाना चाहते हैं, उनके बीच बैठकर संवाद करना चाहते हैं तथा उनकी समस्याओं पर अपना मत रखना चाहते हैं, अपने इस उद्देश्य को पूरा करने में यदि किसी को बुरा लगता हो तो लगे। वे अपने तथाकथित बड़े लोगों की खबर तो रखते हैं पर उनकी चिंता नहीं करते बल्कि उनकी फिसलन और वैचारिक दरिद्रता को भी रेखांकित करते हैं ताकि वह भद्र वर्ग अपनी पूरी सचाई के साथ सामने आ सके। इतने प्रखर आत्मालोचक मुक्तिबोध की कहानियों की चर्चा उस समय नहीं हुई जब वे कहानियाँ लिख रहे थे। उनके मित्र नामवर सिंह जिन्होंने 'कविता के नए प्रतिमान' में दो लेख मुक्तिबोध पर दिए हैं, चाहें वे परिशिष्ट में ही क्यों न हों, उन्होंने भी मुक्तिबोध की कहानियों पर चर्चा करना उचित नहीं समझा जबकि उनकी कहानियाँ उस दौर में छप रही थीं, जिस दौर में नामवरजी 'कहानी : नई कहानी' के लिए लेख लिख रहे थे। 'कहानी : नई' पुस्तक में 'एक साहित्यिक की डायरी' का तो जिक्र है लेकिन कहानियों का नहीं। नामवरजी और तमाम आलोचक मुक्तिबोध की कविता और आलोचना पर तो बहस करते हैं, उनके योगदान को स्वीकार करते हैं पर कहानीकार के रूप में उन्हें लगातार उपेक्षित किया जाता रहा है। कहना न होगा कि उनकी मशहूर लंबी कहानी 'विपात्र' का प्रकाशन भी उनकी कालजयी कविता 'अँधेरे में' के आसपास ही होता है। इसलिए 'अँधेरे में' कविता को पचास वर्ष हुए हैं तो 'विपात्र' के भी पचास ही वर्ष पूरे हुए हैं। मुक्तिबोध को समझने के लिए 'अँधेरे में' जितनी महत्वपूर्ण है उतनी ही 'विपात्र' भी महत्वपूर्ण है। कहा जाता है कि कविता में कवि के खुलने और कहने के लिए कम अवकाश होता है जबकि गद्य में यह अवकाश स्वतः ही बढ़ जाता है। इसलिए मुक्तिबोध की पूरी वैचारिकता ओैर जीवन की त्रासदी को समझने के लिए 'विपात्र' पर चर्चा आवश्यक है। पता नहीं क्यों 'विपात्र' उनकी कविता और आलोचना में दबा दी गई जबकि उसका गद्य उतना ही बेचैनी-भरा है, जितना कविता और आलोचना का गद्य। 'विपात्र' के माध्यम से मुक्तिबोध स्वयं सामने आते हैं और एक ऐसी जिरह करते हैं, जो किन्हीं अर्थों में कविता और आलोचना से आगे है। जिरह का स्तर यहाँ अधिक तीखा और आर-पार का है। वे 'विपात्र' के माध्यम से स्वयं से भी झगड़ रहे थे और समाज के उन मूल्यों से भी जो संबंधों के निर्वाह के नाम पर आदमी उन्हें ढोने को मजबूर है।
'विपात्र' के अलावा 'सतह से उठता आदमी', 'क्लॉड ईथरली', 'पक्षी और दीमक' तथा 'समझौता' इत्यादि कहानियाँ मुक्तिबोध के आत्मसंघर्ष और आत्मालोचन के साथ उनके दुख और ग्लानि को स्पष्ट करती हैं। लंबे समय तक भटकने की पीड़ा, स्थायी और अच्छी नौकरी न मिल पाने का कष्ट, एक ओर साहित्य पढ़ने तथा निरंतर लिखने की बेचैनी तो दूसरी ओर घर की जिम्मेदारी, भयंकर कर्ज और बीमारी आदि ऐसी स्थितियाँ थीं, जिनसे मुक्तिबोध लगातार संघर्ष कर रहे थे। वे अपने मित्रों को पत्र लिखते, नौकरी मिलती लेकिन उससे संतुष्टि नहीं मिल पाती। उनका मन सदैव द्वंद्व में जिया, वे जिस चीज को मनोनकूल पाते थोड़े दिन बाद उससे ऊब भी जाते। छोटी से छोटी जगह पर वही चामच्य भाव, वही षड्यंत्र और वही जीवन और राजनीति के मुद्दों से अलग मध्यवर्गीय ईर्ष्या-द्वेष का प्राधान्य। वे इन स्थितियों में अपने से पूछते कि किसके लिए यह सब कर रहे हो? दुनिया बड़ी है, दुनिया में विपुल ज्ञान है फिर छोटी-छोटी चीजों के लिए इतना परेशान क्यों हो? यह सब जानते हुए भी वे परेशान रहते और बहुत रहते। उन्हें कोई रास्ता नहीं सूझता। उन्हें लगता कि मध्यवर्ग का आदमी आगे बढ़ने के लिए कितने समझौते कर रहा है, अपनी आत्मा को मार रहा है, अपनी बुद्धि को ग्लानि के गटर में डुबो रहा है। अचानक वे बेचैन हो उठते और साफ साफ कह उठते वे ऐसा नहीं कर सकते। 'सतह से उठता आदमी' का कृष्णस्वरूप बड़ा आदमी है लेकिन उसका अपना कोई अस्तित्व नहीं है। दूसरों की कृपा पर पलने वालों की यही दुर्गति होती है। मुक्तिबोध कृष्णस्वरूप की संपत्ति और उसकी पैसे कमाने वाली नौकरी को हिकारत की दृष्टि से देखते हैं। उन्हें इस प्रकार सतह से उठना अच्छा नहीं लगता। उनकी चिंता यह भी है कि आदमी इतना बौना क्यों होता जा रहा है? अच्छी नौकरी और ठाठदार जीवन बिताने के बावजूद कृष्णस्वरूप दयनीय क्यों है? इस दयनीयता से मुक्तिबोध को चिढ़ है, वे अपनी गरीबी में रहना अधिक बेहतर समझते हैं, उन्हें इस प्रकार की चमक-दमक नहीं चाहिए जिसमें उनका अपना व्यक्तित्व ही समाप्त हो जाए। उसी तरह 'समझौता' का मैं नौकरी में जिस प्रकार रीछ बना दिया जाता है और उसका अफसर शेर बन जाता है, उससे उन्हें कष्ट होता है। अफसर उसे समझाते हुए कहता है कि 'आओ, हम दोस्त बन जाएँ। अगर पशु की जिंदगी ही बितानी है तो ठाठ से बिताएँ, आपस में समझौता करके।' अफसर उसे फिर समझाता है 'भाई, समझौता करके चलना पड़ता है जिंदगी में, कभी-कभी जान-बूझकर अपने सिर बुराई भी मोल लेनी पड़ती है। लेकिन उससे फायदा भी होता है। सिर सलामत तो टोपी हजार।' मुक्तिबोध को लगता है 'अफसर के चेहरे पर गहरा कड़वा काला ख्याल जम गया था। लगता था मानो वह स्वयं कोई रटी-रटाई बात बोल रहा हो। मुझे लगा कि जिंदगी से समझौता करने में उसे अपने लंबे-लंबे पैर और हाथ काटने-छाँटने पड़े हैं। शायद मुझे देखकर उसे उस बैल की याद आई थी, जिसके सिर पर जुआ रखा तो गया है लेकिन जो उससे भाग-भाग उठता है। शायद उसे इस बात की खुशी भी हुई थी कि मुझमें वह जवान नासमझी है, गलत और फालतू बातें एक मिनट गवारा नहीं कर सकती।' गलत और फालतू बातों का अस्वीकार तथा स्वाभिमान मुक्तिबोध को जगह-जगह घुमाता रहा, वे बार-बार अपने बारे में सोचते और तय करते कि इस बार वे सब सह लेंगे पर सहने का उनका स्वभाव नहीं था। वे जाते ही व्यवस्था के खंजर को देखते और तुनक जाते। नौकरी ने आदमी को कैसा पंगु और पशु बना दिया है, यह चिंता उन्हें लगातार मथती रहती। नेमिचंद जैन, प्रभाकर माचवे, हरिशंकर परसाई, श्रीकांत वर्मा, अज्ञेय तथा अन्य नए रचनाकारों से निरंतर उनका पत्र-व्यवहार था, वे लोग उन्हें एक गंभीर अध्येता और चिंतक मानते थे। एक ओर वे दुनिया की सभ्यता समीक्षा लिख रहे थे तो दूसरी ओर अपनी पारिवारिक उलझनों में ऐसे फँसे हुए थे कि उससे निकल पाने का कोई रास्ता उन्हें सूझ नहीं रहा था। उनकी महत्वपूर्ण लंबी कहानी 'विपात्र' में जो बेचैनी मिलती है, उस बेचैनी के सूत्र अलग-अलग तरह से इन कहानियों में गूँथे गए हैं। मुक्तिबोध की कहानियाँ मध्यवर्गीय समझौता, आगे बढ़ने की अंधी दौड़ तथा सब कुछ पा लेने के लालच के विरुद्ध दस्तावेज हैं। उनका मन दुनियावी चीजों से घृणा करता था लेकिन दूसरी ओर देखता था कि पैसे के अभाव में उसके परिवारीजन कैसे परेशान रहते हैं - इस द्वंद्व ने उनकी आत्मा को और साफ कर दिया था, वे ऐसे किसी दलदल में नहीं फँसना चाहते थे जहाँ से निकलने का कोई रास्ता ही दिखाई नहीं देता हो। लेकिन जीवन भर उस दलदल से निकल नहीं पाए। उनकी सारी कथा न निकल पाने की बेचैनी की कथा ही है जो उनकी कहानियों में अनेक रूपों में आई है। उनकी अधिकांश कहानियाँ उनके अपने जीवन संघर्षों को ही बयान करती हैं।
'विपात्र' लंबी कहानी है, जो उन्होंने अपनी प्रसिद्ध कविता 'अँधेरे में' के साथ ही लिखी। इसका सबसे पहले प्रकाशन ज्ञानोदय, 1965 में हुआ था लेकिन इसकी रचनावधि 1963-64 ही है। यानी राजनांदगाँव जैसी छोटी जगह की ऊब और घुटनभरी जिंदगी के साथ भयंकर बीमारी के दौर में इस लंबी कहानी को मुक्तिबोध लिख रहे थे। कहना न होगा कि छोटे-छोटे विद्यालयों में पढ़ाते हुए वे कॉलेज में पढ़ाने का सपना देखते थे। अपने प्रिय मित्र नेमि बाबू को उन्होंने कई बार इस बाबत लिखा भी। उनकी यह इच्छा जुलाई, 1958 में पूरी हुई जब वे राजनांदगाँव के दिग्विजय कॉलेज में हिंदी प्राध्यापक नियुक्त हुए। यह उनकी वर्षों की इच्छा का फलीभूत रूप था। भारतीय साहित्य के निर्माता सीरीज के अंतर्गत 'मुक्तिबोध' पर लिखते हुए नंदकिशोर नवल ने इस घटना का जिक्र इसलिए भी किया है कि इसने उनके जीवन को बदल दिया था, वे जो वर्षों से चाह रहे थे वह चाह अब पूरी हुई थी। नवलजी ने लिखा, 'किसी विश्वविद्यालय में व्याख्याता बनने की उनकी पुरानी इच्छा थी लेकिन उसके लिए भी प्रथम श्रेणी में एम.ए. या डाक्टरेट की माँग थी। इसी समय शरद कोठारी का प्रस्ताव उनके सामने आया जो उनके लिए चिरप्रतीक्षित था। राजनांदगाँव छोटी-सी जगह थी, एकांत, इसलिए वहाँ जल्दी ही जी ऊब जाने का अंदेशा था। लेकिन चूँकि वहाँ के कुछ लोग उनके प्रति आदर-भाव रखते थे और उन्हें अपने यहाँ प्रेम से बुला रहे थे, वे तैयार हो गए। उन्हें आशा थी कि वहाँ उन्हें आराम करने और लिखने-पढ़ने के लिए पर्याप्त समय मिलेगा। रायपुर में एक विश्वविद्यालय खुलने वाला था। उन्हें यह भी संभावना दिखी कि उन्हें राजनांदगाँव से बुलाकर वहाँ रखा जा सकता है। कालेज में वेतन ज्यादा न था, लेकिन लिखाई द्वारा अर्थोपार्जन करने का अवसर था, यह बात भी उनके ध्यान में थी। जुलाई, 1958 से उन्होंने दिग्विजय कालेज में काम शुरू किया। नागपुर से राजनांदगाँव आने के रास्ते में एक बड़ी कठिनाई यह थी कि वहाँ मुक्तिबोध पर कुछ कर्ज ऐसा था, जिसे चुकाए बगैर वे वहाँ से न निकल सकते थे। बात कुर्की-जब्ती तक पहुँच जाती। वह कर्ज शरद कोठारी के द्वारा चुकाया गया और इस तरह वे नागपुर से मुक्त हुए।' आरंभिक दिनों में मुक्तिबोध यहाँ आकर बहुत प्रसन्न थे। कालेज शहर से बाहर राजा के महल में था उसके तीन ओर बड़ा तालाब था। उन्हें आवास भी मुख्य दरवाजे के ऊपर बने महल में दिया गया था जिसमें वे घुमावदार सीढ़ियाँ थीं जो अक्सर उनकी कविताओं में आती हैं। उस महलनुमा आवास में मुक्तिबोध जिस जगह बैठकर लिखते थे उसके एक ओर घुमावदार सीढ़ियाँ थीं तो दूसरी ओर वह विस्तृत तालाब और बावड़ी, जिसकी ठंडी हवा पानी में नहाकर मुक्तिबोध के पास तक आती थी। उसमें खिड़कियाँ खूब हैं, जिनके खोलने पर मकान का वातावरण बहुत खुशनुमा बना रहता था। मुक्तिबोध के लिए पढ़ने-लिखने का एक बड़ा अवसर यहाँ आकर मिला था, जिसका उपयोग वे कर रहे थे। उनके बड़े बेटे रमेश मुक्तिबोध तब बहुत छोटे नहीं थे, उन्होंने बताया कि 'तब सारी चीजें उनकी समझ में आने लगी थी। पिताजी ने उन्हें कक्षा में पढ़ाया तो नहीं पर पढ़ाते हुए उन्होंने देखा था।' उसी महल में मुक्तिबोध का एक चित्र टँगा हुआ है, जिसमें वे कुर्ता पायजामा पहने हुए हैं और कुर्ते के ऊपर आचार्यों की तरह शाल डाला हुआ है, यह चित्र तब का है, जब वे प्रसन्न थे और कोई बड़ी बीमारी उन्हें नहीं हुई थी। तब गाल भरे हुए थे और चेहरे पर उजास था। इसी प्रसन्न मनोभूमि में उन्होंने अपनी पुस्तक 'नई कविता का आत्मसंघर्ष तथा अन्य निबंध' को समर्पित करते हुए लिखा 'पं. किशोरीलाल जी शुक्ल को, जिनकी छत्रछाया में बैठकर मेरा लेखन-कार्य संपन्न हो सका।' पं. किशोरीलाल शुक्ल राजनांदगाँव के बहुत प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। अंग्रेजी जमाने में वे राजा के दीवान तथा अंग्रेजों की कॉटन मिलों में अधिकारी थे। पैसा और संपर्क खूब थे, जिसका लाभ उन्होंने आजीवन उठाया था। रजवाड़ों की समाप्ति तथा अंग्रेजों के जाने के बाद वे स्थानीय व्यापारियों के संपर्क में आए और अपने पुराने संबंधों का खूब लाभ उठाया। जीवन के चौथे सौपान पर वे राजनांदगाँव के कालेज के प्राचार्य हो गए। तब यह कालेज आज की तरह सरकारी नहीं हुआ था। मुक्तिबोध की नियुक्ति का साहस वे ही कर सकते थे लेकिन एक बड़े चिंतनशील आदमी को लाकर उसके उपयुक्त वातावरण भी बनाना चाहिए था, जो वे नहीं बना पाए। 1970 के आसपास जोधपुर विश्वविद्यालय में भी कुलपति प्रो. वी.वी. जॉन ने ऐसा ही वातावरण बनाने की कोशिश की थी, जिसके फलस्वरूप उन्होंने नामवरसिंह, योगेंद्र सिंह, वाई.पी. अलघ तथा अज्ञेय इत्यादि नामी विद्वानों की नियुक्ति की थी लेकिन वातावरण न बन पाने के कारण जॉन साहब के जाने के बाद वे विद्वान भी दिल्ली चले गए। राजनांदगाँव जैसी छोटी जगह का चयन मुक्तिबोध ने कॉलेज की नौकरी के लिए किया था लेकिन कॉलेजों की जो अंदर की स्थिति है, उसके बारे में उन्हें संभवतः पता नहीं होगा। 'विपात्र' कहानी के केंद्र में पं. किशोरीलाल शुक्ल और उनका दिग्विजय कालेज ही है।
दिग्विजय कालेज के प्राचार्य पं. किशोरीलाल शुक्ल जिनके बारे में कहा गया है 'हमारे बॉस इस शहर के नामी-गिरामी शैतान हैं। उनके जमाने में मजदूरों पर कितनी बार लाठी चार्ज नहीं हुआ या गोलियाँ नहीं चलाई गईं। रियासत के जमाने में अंग्रेज पोलिटिकल एजेंट के कहने से कितने ही कांग्रेसी जेल में सड़ा दिए गए और मार डाले गए।' तथा 'हमारे बॉस, जो इस सांस्कृतिक केंद्र के सर्वेसर्वा हैं, बड़ी फिक्र के साथ हम लोगों की देखभाल करते हैं। हमें खूब सहायता देते हैं। इस केंद्र के वे प्रमुख हैं। एवज में उससे एक पैसा नहीं लेते। न केवल इस केंद्र को वरन् उसके कर्मचारियों को भी यथाशक्ति सहायता देते रहते हैं। हम सबसे प्रेम रखते हैं। चाहते हैं कि हम अच्छे ढंग से रहें और यहाँ के सर्वोच्च वर्ग में गिने जाएँ। इसलिए वे हमारी चाल-ढाल, कपड़े-लत्ते, यहाँ तक कि हमारी गतिविधि पर भी नजर रखते हैं। शहर में उनके बारे में यह कहा जाता है कि वे अपने पुराने पापों को धो रहे हैं। वे पाप क्या हैं? हम लोग नहीं जानते। किस्सा मुख्तसर यह है कि वे यहाँ की सूती मिल के असिस्टेंट मैनेजर थे। यह सूती मिल एक प्रसिद्ध अंग्ररेज कंपनी की थी। इन अंगरेजों में से बहुतेरों के अपने परिवार न थे। वे अंगरेज अफसर नीची जाति की स्थानीय औरतों से प्रेम करते। नौकरानियों के रूप में वे उनके घर में रहतीं। मजा यह है कि वे नौकरानियाँ जो उनके यहाँ पहुँच जातीं इस बात का अभिमान रखती थीं कि वे बड़ों के घर में हैं। स्वाधीनता के बाद यह मिल जब हिंदुस्तानियों को बेच दी गई तो कई अंगरेजों ने अपनी प्यारी नौकरानियों के लिए बड़े-बड़े घर मकान बना दिए और उनकी जायदाद खड़ी कर दी।' पं. जी के परिचय का लंबा उद्धरण इसलिए कि पूरी कहानी उनके इर्दगिर्द घूमती है। एक ओर उनका यह उपकार कि वे मुक्तिबोध को यहाँ लेकर आए तो दूसरी ओर मुक्तिबोध की पीड़ा कि उनकी लंबी-लंबी, उबाऊ और ज्ञान विरोधी बैठकों में उनका मन नहीं लगता था, उनके पास किताबें थीं लेकिन पढ़ने का समय ये व्यर्थ की बैठकें खा रही थीं। वे बेचैन रहते, बगैर पढ़े और लिखे वे रह नहीं सकते थे। वे जिस उम्मीद में यहाँ आए थे, वह धीरे-धीरे समाप्त हो रही थी। उसे समाप्त होते देख उनका मन और बेचैन हो रहा था। 'विपात्र' इसी बेचैनी की कहानी है।
बेचैनी अपराधबोध में बदलती जा रही थी, रात-दिन वे इस चिंता में घुलते रहते लेकिन कोई रास्ता उन्हें सूझ नहीं रहा था। घर में सात लोग, कर्ज और बीमारियाँ अलग से। वेतन आधे से अधिक कर्ज में चला जाता घर का खर्च ले-देकर ही चलता था। इन स्थितियों में पढ़ना और लिखना ही एक रास्ता हो सकता था लेकिन इसके लिए यहाँ कोई अवकाश नहीं था। उन्होंने लिखा 'इस विद्या केंद्र में किसी को भी विद्यानुराग नहीं था। यहाँ तक कि पढ़ाने का जो काम है उससे संबंधित बातों को छोड़कर, जो व्यक्ति इधर-उधर किताबें टटोलता या अपने विषय में ही रस लेने लगता, उस विषय में प्रायः रसमग्न होकर बातचीत करता, तो लोग बुरा मान जाते। समझते कि वह पढ़ाकू हो रहा है। हमारे यहाँ से जो लोग पी-एच.डी. या डी.एस-सी. होने गए वे अपने आँकड़े समझाकर गए थे। वे सिर्फ पी-एच.डी. चाहते थे जिससे कि वे अगली सीढ़ी पर चढ़ सकें। यही क्यों, हमारे यहाँ का जो सब-डिविजनल आफिसर था वह खुद डी.एस-सी. था जबकि वह पढ़ा-पढ़ाया सब कुछ भूल चुका था। इस प्रकार चाहे जैसे व्यक्तिगत उन्नति प्राप्त करना एक प्राकृतिक नियम का उच्च और अनिवार्य पद प्राप्त कर चुका था। इन तथ्यों को मैं जरा भी बढ़ा-चढ़ाकर नहीं कह रहा हूँ। विज्ञानवालों को यह मालूम नहीं था कि हाल ही में कौन-कौन महत्वपूर्ण आविष्कार हो रहे हैं और हिंदी वालों को यह ज्ञात नहीं था कि आजकल इस क्षेत्र में क्या चल रहा है। और जो मालूम भी था वह केवल सुना-सुनाया था, अस्पष्ट था, धुँधला और उलझा हुआ था। और इस बीच हमारे यहाँ के एक अध्यापक ने तरह-तरह के गैस पेपर्स निकालकर एक प्रकाशक से आठ-एक सौ रुपये कमा भी लिए थे। वेसे हम सब नौजवान थे, कई उपाधियों से विभूषित थे, अपने विषय के आचार्य माने जाते थे। एक तरह से हम भोले थे, सरल हृदय भी। हम किसी के दुख से पिघल भी सकते थे, सहायता भी करते थे। लेकिन हममें सामाजिक चेतना नहीं थी, क्योंकि असल में हम सब लोग हरामखोर थे।'
पूरे उद्धरण में मुक्तिबोध ने इस तथ्य का खुलासा किया है कि एक तो इस कालेज में विद्यानुराग किसी अध्यापक में नहीं था तथा दूसरा, हममें सामाजिक चेतना नहीं थी। ये दोनों तथ्य महत्वपूर्ण हैं। यदि अध्यापकों में विद्यानुराग नहीं हो और उनमें अपने समय और समाज को समझने की चेतना न हो तो वे अतीतजीवी ओैर स्वार्थी हो जाते हैं। उन्हें अतीत में ही सब कुछ अच्छा लगता है और उसी के गुणगान करते हुए अपने हित साधन को प्रमुखता देने लगते हैं । यह कहानी आज के समय के शिक्षा केंद्रों के लिए अधिक मौजूँ है। उदारीकरण से पहले महाविद्यालयों को सरकारी अनुदान मिला करता था और उन पर अस्सी प्रतिशत नियंत्रण भी सरकार का होता था। वे पूरी तरह निजी नहीं थे। इसलिए अधिकांश अध्यापकों की नियुक्तियाँ भी गुणवत्ता के आधार पर होती थीं। उस समय के अधिकांश महाविद्यालयों के अध्यापक अपने-अपने क्षेत्रों में काम के कारण जाने जाते थे। अब एक तो शिक्षा के निजीकरण तथा दूसरे, मीडियोकर प्राचार्य और कुलपतियों के कारण शिक्षा जगत का भट्टा बैठ रहा है। अब अध्यापकों की नियुक्तियाँ भाई-भतीजावाद से भी आगे जाकर पैसे और राजनीतिक गोटें बैठाने के लिए होने लगी हैं और सत्ताधारी राजनेता उन निकम्मे कार्यकर्ताओं को अध्यापक बनवा रहे हैं जो जनता के सामने जाने से डरते हैं। यह निकम्मे कार्यकर्ता न तो कक्षाओं में जाते हैं और न उनका शिक्षा से कोई संबंध है। वे जिस तिकड़म के बल पर अध्यापक बनते हैं उसी तिकड़म के बल पर आगे बढ़ जाते हैं। इसलिए बड़े बड़े संस्थानों में अनाम और अज्ञातकुलशील अधिकारी बने बैठे हैं, जो अपने काम के लिए नहीं बल्कि अपने आका की कृपा के कारण जाने जाते हैं। क्या पच्चीस वर्ष पहले यह सोचा जा सकता था कि विश्वविद्यालय भी निजी क्षेत्रों के हाथों चले जाएँगे और प्रोपर्टी डीलर, अपराधी राजनेता तथा सूदखोर चालाक भेड़िये उन निजी विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति होंगे। मुक्तिबोध की कविता 'अँधेरे में' का प्रोसेशन अचानक दिमाग को डरा देता है जब वे देखते हैं कि उस प्रोसेशन में बड़े लोगों के साथ डोमा उस्ताद भी है। आज जब सड़कों पर शहर के किसी ऐसे अपराधी को कुलाधिपति की प्लेट लगाकर गाड़ी दौड़ाते देखते हैं तो उसमें डोमा उस्ताद नजर आता है और अंदर एक बेचैनी बढ़ जाती है। ऐसे प्राचार्य और कुलपति अपने हित साधने में किसी की भी हत्या कर सकते हैं, किसी अच्छे अध्यापक को अपमानित कर सकते हैं और गैर एकेडेमिक माहौल बनाए रख सकते हैं ताकि उन पर कोई उँगली न उठाए। वे जिस प्रकार का वातावरण अपने यहाँ बनाते हैं, उसमें कोई अकादमिक सरोकारों से जुड़ा सामाजिक चेतनासंपन्न व्यक्ति रह ही नहीं सकता। मुक्तिबोध ने बॉस की बैठकों का जो चित्र प्रस्तुत किया है, वह लगभग उसी तरह का गैर अकादमिक मध्यवर्गीय चित्र है जिसमें महाविद्यालय की प्रगति, छात्र और अध्यापकों में अकादमिक रुचि उत्पन्न करने के लिए कार्यक्रम आरंभ करने की योजना, पुस्तकालय को अद्यतन बनाने के प्रयास तथा शैक्षणिक उन्नति के लिए किए जाने वाले कार्यों को छोड़कर शेष व्यर्थ की बातों पर रोजाना चर्चा होती रहती 'एक बात साफ है कि हमें उस महफिल में मजा नहीं आता था, जिसमें विविध प्रकार के भोजनीय पदार्थों से लेकर कैंसर और ल्यूकीमिया तक तथा भूतों से लेकर कम्युनिस्टों तक की चर्चाएँ होतीं। ये महफिलें जो शाम के पाँच बजे से लेकर रात के बारह-एक तक चलती रहतीं, उस अभाव का परिणाम थीं जिसे अकेलापन कहते हैं। हम जो यहाँ बीस थे, वे चाहे परिवार में ही क्यों न रहें अपने को अकेला, किसी शाखा से कटा हुआ और अधूरा महसूस करते थे और अपने अकेलेपन की वेदना से भागने के लिए, वक्त काटने की एक तरकीब के तौर पर, सामूहिक भोजन, सामूहिक पार्टी, गपबाजी, महफिलबाजी का आसरा लिया करते। लोग भले ही उसका मजा लिया करें, मैं ऐसी बेढंगी, बे-जोड़ और बे-मेल सोसाइटी में फँसकर बड़ी घुटन महसूस करता। ...क्लब की जिंदगी अगर सामाजिकता का लक्षण है तो मैं ऐसी सामाजिकता से बाज आया।' सामाजिक होने का अर्थ व्यक्ति केंद्रित या स्वार्थ केंद्रित जीवन शैली नहीं है, समाज कभी भी इतना संकुचित नहीं हो सकता कि एक चारदीवारी के अंदर अपनी दुनिया बनाकर उसमें बॉस की सनक के अनुसार रहा जा सके। मुक्तिबोध लिखते हैं 'दरबारी लोग कहते हैं कि हमारे बॉस हमारे खाविंद हैं और हम सब उनकी नौजवान रखैलें हैं।' दरबारियों का यह कहना कितना बेशर्मीभरा है, एक नौकरी के लिए आदमी कितना गिर सकता है, यह उसका नमूना है, जिसे पढ़कर मन घृणा से भर उठता है। यह घृणा 'विपात्र' के केंद्र में है।
मुक्तिबोध की पीड़ा यह है कि एक ओर बॉस हैं, जो उन्हें लेकर आए थे तथा दूसरी ओर ये घृणित स्थितियाँ हैं जो किसी भी सामाजिक चेतना से संपन्न व्यक्ति को दरबारी और चाटुकार बनाकर उसके पूरे व्यक्तित्व का क्षरण कर रही थीं। उनके मन में परस्पर और प्रतिकूल विचारों की आँधी हमेशा चलती रहती। वे सोचते रहते कि क्या उपकार का मतलब गुलामी है और यदि है तो उन्हें भाग जाना चाहिए और यदि नहीं है तो अकेले पड़कर वे बॉस का विरोध कैसे कर सकते हैं जबकि पूरा कालेज उनके अतीत को जानते हुए भी उनकी कृपा के नीचे दबा हुआ है। 'पिस रहा दो पाटों के बीच' यह पंक्तियाँ उनकी इसी मानसिकता को व्यक्त करती हैं। वे कहते हैं 'इसीलिए मुझे निस्संगता मिली है। जो मेरे अपने हैं, जिनके लिए व्यक्तिशः मेरे हृदय में स्थान है, वे मेरे विचारों के विरोधी, मेरे आंतरिक जीवन से बहुत दूर हैं। और जो व्यक्तिशः मेरे नहीं हैं, नहीं हो सकते, उनकी ओर-उनके इर्दगिर्द मेरे विचार, मेरी आत्मा मंडराती है। वे मुझे स्नेहदान नहीं कर सकते-क्योंकि मैं उनके जीवन-जगत का अंग हूँ, उनसे प्राप्त हुए प्रेम और आदर से मैं हमेशा बचते रहने की कोशिश करता हूँ। लेकिन क्या करूँ, जब मैं बीस बरस का था, नौजवान था, मैंने शादी कर ली। आज सात बच्चों का बाप हूँ। उनकी परवरिश करना भी मुश्किल है। अपने बुढ़ापे में यह नौकरी मिली है। अब यहाँ से कहाँ जाऊँ? हर चीज मेरे लिए लायबिलिटी है - परिवार, परिस्थिति और विचार, सभी - कोई मेरी उन्नति में योग नहीं देती। लेकिन मुझे इसकी चिंता है। अँधेरे में रहकर अँधेरे में मर जाना ठीक समझता हूँ लेकिन फटीचरों से घृणा करना नहीं चाहता। चाहता हूँ कि मेरे हाथ से कोई अच्छा-सा काम हो जाए तो भर पाऊँ।' ये फटीचर वे लोग हैं, जिनसे बचकर कथानायक यानी मुक्तिबोध उन मलिन बस्तियों में जाया करते थे, जहाँ जाने पर बॉस नाराज होते थे। बॉस को लगता था कि शहर के इस उच्च शिक्षा केंद्र के प्राध्यापकों का समाज में एक विशिष्ट स्थान है, उन्हें ऐसे स्थानों पर नहीं जाना चाहिए जहाँ जाने से उनकी और उनके प्रतिष्ठान की प्रतिष्ठा पर दाग लगता हो। 'वह मुझसे कहता है कि इस सांस्कृतिक केंद्र की प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए हम और तुम उन गंदे होटलों में न जाएँ जहाँ ढीमर और महार, कुनबी और चमार, मजदूर चाय पीने आते हैं। वह क्यों ऐसा कहता है कि उसके लेखे चमकदार सोसायटी में उठना-बैठना सभ्यता, शिक्षा ओर संस्कृति का, समाज के सर्वोच्च शिखर का प्रधान लक्षण है। मिस्टर जगत, इसीलिए मैं जान-बूझकर होटलों में जाता हूँ और तुम भी मेरे साथ वहीं जाते हो और तुम्हें भी मालूम है कि मैं वहाँ क्यों जाता हूँ? इस मध्यवर्ग में जीवित रहते मेरे बाल सफेद होने जा रहे हैं और मैं उसकी जन-घृणा को पहचानता हूँ, खूब अच्छी तरह से। जिंदगी में एक जगह नहीं, हजारों जगह मुझे ऐसे तजुर्बे मिले हैं - चाहे वह एम.बी.बी.एस. डॉक्टर हो, कॉलेज का प्रोफेसर हो या हेडमास्टर हो। चाहे व्यापारी हो। मैं इन्हें खूब पहचानता हूँ।'
मध्यवर्गीय जीवन के आभिजात्य से मुक्तिबोध को घृणा थी। वे उस समाज को अच्छी तरह जानते थे जो अपना नरक खुद तैयार करता है, जिसमें एक दूसरे की टाँग खिंचाई, उपहास और चुगलियाँ आम बात है। जिसके पास जीवन के बड़े सरोकार नहीं है, जिसके लिए देश और समाज कोई अर्थ नहीं रखते, वे ऐसे ही लोगों से 'अँधेरे में' कविता में पूछते हैं 'ओ मेरे आदर्शवादी मन, ओ मेरे सिध्दांतवादी मन, अब तक क्या किया? जीवन क्या जिया!! उदरंभरि बन अनात्म बन गए, भूतों की शादी में कनात से तन गए, किसी व्यभिचारी के बन गए बिस्तर, दुखों के दागों को तमगों-सा पहना, अपने ही ख्यालों में दिन-रात रहना, असंग बुद्धि व अकेले में सहना, जिंदगी निष्क्रिय बन गई तलघर, बताओ तो किस-किस के लिए तुम दौड़ गए, करुणा के दृश्यों से हाय मुँह मोड़ गए, बन गए पत्थर।' इक्कीसवीं सदी में ये स्थितियाँ और भयावह हुई हैं। अब देसी-विदेशी पूँजी के इस घालमेल ने मध्यवर्ग के सामने चकाचौंध जैसी स्थिति उत्पन्न कर दी है। टीवी चैनल्स पर रात-दिन उस दुनिया को दिखाया जा रहा है, जो दुनिया हमारी है ही नहीं। लेकिन उसके प्रति जीवन-मरण के प्रश्नों जैसा आकर्षण उत्पन्न किया जा रहा है, सबको लग रहा है कि यदि वह पिछड़ गया तो वह कहीं का नहीं रहेगा। शिक्षा संस्थानों में यह स्थिति और अधिक खराब हुई है। अब कोई पढ़ने-पढ़ाने नहीं आता बल्कि नौकरी करने आते हैं, महाविद्यालयों के अध्यापक स्टाफ रूम में जमीन खरीदने बेचने तथा शेयर मार्केट की चर्चा करते हैं तो विश्वविद्यालयों में आगे का पद पाने तथा कुलपति बनने के लिए कितने रुपये किसे देने होंगे, उसकी खोज होती है। कंप्यूटर, प्रबंधकीय तथा अभियांत्रिकीय शिक्षा ने कला और मानविकी को निकृष्ट घोषित कर दिया है इसलिए या तो विद्यार्थी आते ही नहीं और आते भी हैं तो उन्हें कोई पढ़ाने वाला नहीं मिलता। घटिया आईएसएसएन पत्रिकाएँ प्रकाशित करने का धंधा और शुरू कर दिया है ताकि बिना पढ़े लोग अपनी चोरी की गई अकादमिक सामग्री से उच्च पद पा सकें। 1964 के शिक्षा केंद्र के बॉस अपने अध्यापकों को बैठाकर बात तो करते थे, उनके सुख-दुख में सहभागी तो होते थे, अब न तो बॉस को फुरसत है और न अध्यापकों को ही। सब अपने-अपने दूसरे धंधों में व्यस्त हैं। इस बात की कल्पना मुक्तिबोध ने भी नहीं की होगी कि उनका 'विपात्र' पचास वर्षों में और कितना अधोमुख विपात्र हो जाएगा।
शिक्षा व्यवस्था को समझने के लिए 'विपात्र' आज अधिक मौजूँ है। मुक्तिबोध जैसे अध्यापक अब भी हैं और वे उनकी तरह ही अकेले भी हैं। अब अपने अधिकारों के लिए कोई आंदोलन नहीं होता क्योंकि चालाक और धूर्त लोग अंदर से ही सब कुछ पा लेने में अपना हित देखते हैं। सत्ताधारी दल की मनमानी शिक्षा जगत की स्वायत्तता पर हावी है। आजादी के तुरंत बाद जब पं. नेहरू से किसी ने विश्वविद्यालय के प्रोफेसरों को रोजाना हस्ताक्षर करवाने की बात की तो नेहरूजी ने उन्हें डाँट दिया था इसलिए कि उन्होंने केंब्रिज के प्रोफेसर देखे थे। अब तो महाविद्यालय और विश्वविद्यालयों में अनिवार्य उपस्थिति के लिए अँगूठा लगाने की मशीनें लगाई जा रही हैं। प्राध्यापकों को अँगूठा छाप बनाने और मानने का यह प्रयास है, जिसका विरोध किसी ओर से नहीं हो रहा है और सरकार तथा यूजीसी जो चाहती है वह करा रही है। 'विपात्र' का बॉस तथा राव साब जैसे लोग हर शिक्षा संस्थान में पहुँचकर उसे व्यक्तिगत सनक का केंद्र बना रहे हैं, जहाँ शिक्षा और शोध से अधिक व्यर्थ की चर्चाओं में समय व्यतीत हो रहा है। पढ़ने-पढ़ाने वाला और शोध करने वाला अध्यापक हर जगह अकेला है, उसकी सृजनशील संकल्प शक्ति के चिथड़े-चिथड़े हो रहे हैं। ये स्थितियाँ घातक हैं इसलिए मुक्तिबोध की चिंता है कि 'आदमी तकलीफों से नहीं डरता, वरन् वह बासीपन से, अपने बंजरपन से, हारकर खुद को थका-हारा महसूस करता है।' शिक्षा केंद्रों में सृजनशीलता के अभाव में बासीपन और बंजरपन अपने पैर तेजी से पसार रहा है, जिसकी चिंता न सरकार को है और न समाज को। इसलिए 'विपात्र' कहानी पचास वर्ष बाद और अधिक प्रासंगिक हो गई है, जिसे उसकी बेचैनी और संवेदनशीलता की गहराई में पढ़ा जाना चाहिए।